
“वेद भी मेरे, बुद्ध भी मेरा” इस वाक्य के साथ मैं यह आलेख प्रारम्भ कर रहा हूँ। इसे सभी हिंदुओं और विशेषकर उन नव बौद्धों और बुद्धिज्म का पालन करनेवाले धर्मानुयायियों को अवश्य ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए। जो लोग बुद्धिज्म में होकर ब्राह्मणों का विरोध नफरत की हद तक करते हैं, उन्हें तो यह लेख पढ़ने के साथ सहेजकर भी रख लेना होगा ताकि इसे सन्दर्भ के रूप में भविष्य में प्रयोग कर सकें।
कुछ इतिहासकारों और फिलॉसोफेरो का मानना है कि बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद दो अलग-अलग धर्म और दर्शन हैं, जिनका इतिहास भारत में एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। बौद्ध धर्म, जिसे गौतम बुद्ध ने शुरू किया, ब्राह्मणवाद के कुछ सिद्धांतों का विरोध करता है, जैसे कि कर्मकांड और जाति व्यवस्था। हालाँकि, बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच कुछ समानताएं भी हैं, जैसे कि वेदों और पुनर्जन्म के विचारों पर विश्वास।
बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के कुछ पहलुओं को चुनौती देता है, जैसे कि जाति व्यवस्था और कर्मकांड। बौद्ध धर्म में, किसी व्यक्ति की जाति या कर्मकांड उसके सामाजिक स्थिति को निर्धारित नहीं करते हैं, बल्कि यह उनकी योग्यता और ज्ञान पर आधारित होता है। बौद्ध धर्म का मानना है कि सभी लोग बराबर हैं, चाहे वे किसी भी जाति या वर्ग से हों।
ब्राह्मणवाद, जो मुख्य रूप से वेदों पर आधारित है, जाति व्यवस्था को स्वीकार करता है और कर्मकांडों को महत्व देता है। ब्राह्मणवाद का मानना है कि जन्म से निर्धारित जाति और कर्मकांड एक व्यक्ति के सामाजिक स्थिति को निर्धारित करते हैं।
बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच कुछ समानताएं भी हैं। दोनों धर्म पुनर्जन्म के विचार में विश्वास करते हैं। दोनों धर्म ज्ञान और सद्गुणों को महत्व देते हैं। बौद्ध धर्म में, ज्ञान का महत्व है, और बुद्ध को ज्ञान के लिए सम्मानित किया जाता है। ब्राह्मणवाद में, ज्ञान ब्राह्मणों का विशिष्ट अधिकार है।
बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच संबंध जटिल है। कुछ लोग बौद्ध धर्म को ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक प्रतिक्रिया के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य लोग बौद्ध धर्म को ब्राह्मणवाद से प्रभावित एक धर्म के रूप में देखते हैं।
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बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के कुछ पहलुओं का विरोध करता है,
जैसे कि जाति व्यवस्था और कर्मकांड।
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बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के कुछ पहलुओं को स्वीकार करता है,
जैसे कि वेदों और पुनर्जन्म के विचार।
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बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच कुछ समानताएं हैं,
जैसे कि वेदों और पुनर्जन्म के विचारों पर विश्वास।
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बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के जाति व्यवस्था के विरोध को दर्शाता है:
बौद्ध धर्म में, किसी व्यक्ति की जाति उसके सामाजिक स्थिति को निर्धारित नहीं करती है।
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बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के कर्मकांडों के विरोध को दर्शाता है:
बौद्ध धर्म में, कर्मकांड किसी व्यक्ति के सामाजिक स्थिति को निर्धारित नहीं करते हैं।
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बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के वेदों के प्रति सम्मान को दर्शाता है:
बौद्ध धर्म वेदों को एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में मानता है।
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बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के पुनर्जन्म के विचार को दर्शाता है:
बौद्ध धर्म में, पुनर्जन्म एक महत्वपूर्ण अवधारणा है।
बुद्ध और ब्राह्मण —
मान्यता अनुसार जब सिद्धार्थ ( गौतम बुद्ध) पैदा हुये, 8 ब्राह्मण विद्वान दरबार मे आये। 7 ने बताया कि ये या तो चक्रवर्ती राजा बनेगें या बहुत बडे सन्यासी।
और एक कोनडान्ना (कौन्डण्य) नामक ब्राह्मण घोषणा करता है कि ये बहुत बडे सन्यासी ही बनेगे और बुद्धत्व को प्राप्त करेंगे।
जातक बताती है कि गौतम बुद्ध से पहले सात ब्राह्मण बुद्ध हो चुके है। जिनके नाम है दीपांकर, मंगला, रेवता, अनोदस्सी, काकूसंध, कोणगमन और कश्यप ।
जातक के अनुसार ही गौतम बुद्ध से अगले बुद्ध मैत्रेय नामक ब्राह्मण बनेंगे ।
जातक के अनुसार ही गौतमबुद्ध की जन्मस्थली का नाम ब्राह्मण सामाख्य मुनि कपिल के नाप पर कपिलवस्तु था/ है।
बौद्ध ग्रंथो मे
अनन्त ब्राह्मण सुत्ता, अन्नत्र सुत्ता , कंकी सुत्ता, एसुकारी सुत्ता, जनुसोनी ब्राह्मण सुत्ता, गणकमोघल्लन सुत्ता, पच्चभुमिका सुत्ता, सलेय्यक सुत्ता आदि ब्राह्मणो को डेडिकेटिड है ।
इसके अलावा धम्मपद जोकि गौतम बुद्ध को खुद की वाणी मानी जाती है, का एक पूरा अध्याय ब्राह्मणो की स्तुति को समर्पित है , ब्राह्मण वग्गो ।
मज्जहिम निकाय मे बुद्ध ब्राह्मणो की पांच विशेषताये सत्य, तपस, ब्रह्मचर्य, अज्जहेना ( अध्ययन) और त्याग बताकर उन्हे प्रेरित कर रहे है।
अस्सालयन सुत्त गौतम बुद्ध लोगो की कर्म द्वारा सर्वश्रेष्ठ केटेगरी को ब्राह्मण बताते है।
नागसेन की मिलिन्द पोह मे एक कहानी अनुसार गौतम बुद्ध खुद को कर्मो से एक ब्राह्मण बताते है।
विनय पिटक के महावग्ग सेक्शन मे गौतम बुद्ध बताते है कि वेद दस ब्राह्मण ऋषियों द्वारा दिये गये थे शुद्ध थे, असली थे पर बाद के पुरोहितो ने इसमे बदलाव कर दिया है।
दस वैदिक ऋषियों के नाम जो बुद्ध ने बताये थे है अत्रि ( अत्तको), वामको, वामदेव, विश्वामित्र ( वस्समित्तो), जामदग्नि (यमतग्गी), अंगरसो, भारद्वाज, वशिष्ठ, कश्यप और भ्रगु है।
बुद्ध के सभी प्रमुख शिष्य ब्राह्मण है।
सारी बुद्ध फिलोसफी के रचनाकार ब्राह्मण है।
सभी बुद्ध ग्रंथो के लेखक ब्राह्मण है। बुद्धिजम के सभी प्रचारक ब्राह्मण है।
बुद्धिज्म के लिये लोजिक और शास्त्रार्थ करने वाले ब्राह्मण है।
बुद्ध के पांच सबसे पहले शिष्य ब्राह्मण है।
जिनमे अश्वजीत ( अस्सजी) प्रमुख है इनके पिता बुद्ध के लिये घोषणा करने वारे 8 ब्राह्मणोप मे एक थे ।
अश्वजीत से सुनकर बुद्ध तक पहुचे और उनके प्रिय शिष्य बने सरिपुत्र जोकि अभिधंम फिलोसीफी के फान्डर है ब्राह्मण थे ।
मुद्गलयान ब्राह्मण है। ये दोनो बुद्ध के सबसे शुरूआती शिष्यो मे है।
बुद्धिजम की महायान फिलोसी का फाऊन्डर कश्यप है जोकि ब्राह्मण है।
बुद्धिजम की थेरवाद फिलोसिफी के प्रवर्तक नागार्जुन और अश्वघोष ब्राह्मण है।
वज्रयान बुद्धिजम के संस्थापक बुद्धघोष वो ब्राह्मण है।
तिब्बती बुद्धिजम के प्रवर्तक पदमसंम्भव वो ब्राह्मण है।
जेन बुद्धिजम का फाउन्डर बोधिधर्म वो भी ब्राह्मण है।
कुंग फू स्कूल का संस्थापक कुमारजीव वो भी ब्राह्मण है।
बोधिधर्म और कुमारजीव ये दोनो बुद्धिजम को चीन मे पहुचाने वाले माने जाते है।
आर्यदेव जोकि वास्तव मे श्रीलंका मे बुद्धिज्म को पहुचाने वाले है जिन्हे वहां बोधी देव के नाम से भी जाना जाता , वे भी ब्राह्मण थे।
नागसेन जिसका मिलिन्द पोह है जिसे ग्रीक राजा मिलिन्द को बुद्धिजम दीक्षित किया था माना जाता है वो ब्राह्मण है। इन्होने ही सबसे पहले बुद्धचरित्र लिखा है।
शान्तिदेव जिन्होने बोधीसत्व का तरीका बताया, वे भी ब्राह्मण है।
धर्मकीर्ति ( ये कुमारिल भट्ट जोकि भारत से बुद्धिज्म को खत्म करने के सबसे बडे कारण माने जाते है, के भतीजे थे) ने बुद्धिजम के लिये तर्कशास्त्र की रचना की।
बुद्धिजम मे वास्तव मे बुद्ध तो काल्पनिक पात्र है। बुद्ध भोतिक रूप मे कुछ है ही नही। ये तो बोध ( ज्ञान की एक अवस्था) है जिसके मानवीयकरण को केन्द्र मानकर सबकुछ ब्राह्मणो द्वारा रचा गया है। यहां तक कि धम्मचक्र और चार आर्य सत्य भी बुद्धिज्म मे ब्राह्मणो की ही देन है एसा विद्वानो द्वारा माना जाता है।
बुद्धिजम तो प्योर ब्राह्मण फिलोसिफी जोकि वेदो की सर्वोपरिता के अंतर को लेकर पैदा हुई।
भारत मे बुद्धिजम को बनाये रखने के लिये लडने वाले, शास्त्रार्थ करने वाले, उसके लिये फिलोसीफी रचने वाले भी ब्राह्मण थे और बुद्धिजम के खिलाफ भी तर्क रचने वाले, फिलोसीफी लिखने वाले, इसे आत्मसात करने वाले भी ब्राह्मण थे। आद्य पर्यंत तक बुद्धिज़्म को आधार देने वाले राहुल सांकृत्यायन भी ब्राह्मण ही थे । बुद्ध के मित्र प्रसिनेदि भी ब्राह्मण थे । तक्षशिला के सभी शिक्षक भी ब्राह्मण ही थे ।
भगवान बुद्ध को आर्य शब्द से अत्यधिक प्रेम था उनके चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग और आर्य श्रावक तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं | भगवान बुद्ध भी अपने को ब्राह्मण , आर्य , भक्षु ही कहते थे ।
आर्यों की व्याख्या करते हुए भगवान बुद्ध कहते हैं कि –
न तेन अरियो होति येन पाणानि हिंसति |अहिंसा सब्ब पाणानि अरियोति पवुच्चति || ( धम्मपद धम्मठवग्गो २७०:५ )
अर्थात प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं कहलाता, समस्त प्राणियों की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य कहलाता है |
भगवान बुद्ध ने सन्यास से पूर्व सदैव क्षात्र धर्म का पालन किया तथा सन्यास लेने के पश्चात् अपने कर्म एवं योग्यतानुसार ब्राह्मण वर्ण को धारण किया | भगवान बुद्ध के सम्पूर्ण जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध हो कि उन्होंने अम्बेडकर के दलितवाद को धारण किया ।
जिसमें से एक प्रसंग मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ –
सुंदरिक भारद्वाज सुत्त में कथा है कि सुंदरिक भारद्वाज जब यज्ञ समाप्त कर चुका तो वह किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को यज्ञ शेष देना चाहता था | उसने सन्यासी गौतम बुद्ध को देखा और जब उसने उनकी वर्ण पूछी तो बुद्ध ने कहा जाति मत पूछ मैं ब्राह्मण हूँ और वे उपदेश करते हुए बोले
– “यदंतगु वेदगु यन्न काले, यस्साहुतिल ले तस्स इज्झेति ब्रूमि |” ( सुत्तनिपात ४५८ )
अर्थात वेद को जानने वाला जिसकी आहुति को प्राप्त करे उसका यज्ञ सफल होता है ऐसा मैं कहता हूँ | तब सुंदरिक भारद्वाज ने कहा –
“अद्धा हि तस्स हुतं इज्झे यं तादिसं वेद्गुम अद्द्साम |” ( सुत्तनिपात ४५९ )
अर्थात सचमुच मेरा यज्ञ सफल हो गया जिसे आप जैसे वेदज्ञ ब्राह्मण के दर्शन हो गये |
भगवान बुद्ध ब्राह्मण किसे मानते थे इसका वर्णन धम्मपद के ब्राह्मण वग्ग में इस प्रकार है –
पाली भाषा में – न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो | यम्ही सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ||
( श्लोक – न जटाभिर्न गोत्रेर्न जात्या भवति ब्राह्मणः | यस्मिन सत्यं च धर्मश्च स शुचिः स च ब्राह्मणः || )
अर्थ – न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है जिसमे सत्य और धर्म है वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है |
पाली भाषा में – अकक्कसं विन्जापनिम गिरं सच्चं उदीरये | काय नाभिसजे किंच तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ||
( श्लोक – अकर्कषाम विज्ञापनी गिरं सत्यामुदीरयेत | यया नाभि शजेत किंचित तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणं || )
अर्थ – जो इस प्रकार की अकर्कश, आदरयुक्त तथा सच्ची वाणी को बोले कि जिससे कुछ भी पीड़ा न हो उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ |
पाली भाषा में – यस्सालया न विज्जन्ति अन्नाय अकथकथी | अमतोगधं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ||
( श्लोक – यस्यालया न विद्यन्ते आज्ञायाकथं कथी | अमृतावगाधमनुप्राप्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं || )
अर्थ – जिसको आलस्य नहीं है, जो भली प्रकार जानकर अकथ पद का कहने वाला है, जिसने अमृत ( परमेश्वर ) को प्राप्त कर लिया है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ | …………. ( पाठकगण भगवान बुद्ध द्वारा ब्राह्मण की व्याख्या को और अधिक विस्तार से जानने के लिए धम्मपद का ब्राह्मण वग्गो पढ़ें, लेख विस्तार भय से में इतने उदहारण देना पर्याप्त समझता हूँ )
भगवान बुद्ध के उपदेशों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भी दलितपन को धारण नहीं किया और न ही किसी को दलित बनने के लिए प्रेरित किया | उन्होंने ब्राह्मणत्व को धारण किया तथा अन्यों को भी ब्राह्मण बनने के लिए प्रेरित किया |
बहुतेरे लोग मानते हैं कि गौतम बुद्ध ने कोई नया धर्म चलाया था और वे हिंदू धर्म से अलग हो गए थे। हालांकि ऐसे लोग कभी नहीं बता पाते कि बुद्ध कब हिंदू धर्म से अलग हुए? एक वाद-विवाद में बेल्जियम के विद्वान डॉ. कोएनराड एल्स्ट ने चुनौती दी कि वे बुद्ध धर्म को हिंदू धर्म से अलग करके दिखाएं। एल्स्ट तुलनात्मक धर्म-दर्शन के प्रसिद्ध ज्ञाता हैं। ऐसे सवालों पर वामपंथी लेखकों की पहली प्रतिक्रिया होती है कि ‘दरअसल तब हिंदू धर्म जैसी कोई चीज थी ही नहीं।’ यह विचित्र तर्क है। जो चीज थी ही नहीं उसी से बुद्ध तब अलग हो गए?
इतिहास यह है कि सिद्धार्थ गौतम क्षत्रिय थे, इक्क्षवाकु वंश के यानी मनु के वंशज। यह बात स्वयं बुद्ध ने ही कही। सिद्धार्थ शाक्य वंश के राजा के बेटे थे। स्वयं बौद्ध लोग भी बुद्ध को ‘शाक्य-मुनि कहते हैं। अर्थात शाक्य वंश के श्रेष्ठ ज्ञानी। यदि उस वंश और पहले की धर्म-परंपरा से बुद्ध ‘अलग’ हो गए होते तो नि:संदेह यह विशेषण गौरवशाली न होता। वह परंपरा मनु की यानी सनातन हिंदू ही थी।
इक्क्षवाकु मनु के ही ज्येष्ठ पुत्र का वंश है। इसे खारिज करने और अपने को अलग करने की घोषणा या उल्लेख बुद्ध ने कभी नहीं की। वस्तुत: सिद्धार्थ गौतम ने 29 वर्ष की आयु में समाज का त्याग किया, हिंदू धर्म-परंपरा का नहीं। समय-समय पर खोजियों, ज्ञानियों, भावी ऋषियों द्वारा परिवार, समाज और दुनियादारी का त्याग करना एक चिर-स्थापित हिंदू परंपरा ही थी। बुद्ध ने उसी परंपरा को दोहराया जो हिंदू समाज में पहले से प्रचलित थी। वह परंपरा आज भी है। बुद्ध ने वैदिक अनुष्ठानों का पालन अवश्य छोड़ दिया, फिर भी सभी वैदिक मंत्रों को छोड़ा, ऐसा नहीं है।
ङोन-बुद्धिज्म में वैदिक मंत्रों की तरह ही हृदय-सूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें अंत में ‘सोवाका’ अर्थात ‘स्वाहा’ भी कहते हैं, लेकिन कर्म-कांड छोड़ना कोई नई चीज नहीं थी जो बुद्ध ने शुरू की। ज्ञान पाने के लिए बुद्ध ने कई तरह के प्रयत्न किए, यह उनकी जीवन-गाथा बताती है। उसमें ‘अनपानासति’ (श्वास-संचालन पर ध्यान देना) भी था, जो योग-पद्धति की सामान्य चर्या है। किसी चर्या, साधना को स्वीकार करना या छोड़ देना भारत में सदा से चली आ रही बात है। उससे कोई हिंदू नहीं रह जाता, ऐसा कभी नहीं समझा गया। यदि बुद्ध ने कोई नई साधना तकनीक भी विकसित की तो यह पहली घटना हरगिज न थी। ज्ञान पाना, बोध होना, ‘बुद्ध’ बनना यह पहले भी हुआ है, इसे गौतम बुद्ध ने भी कहा है।
बुद्ध ने जब ‘धर्म-चक्र प्रवर्तन’ किया तो इसका कोई संकेत नहीं दिया कि वह पहले की कोई परंपरा तोड़ रहे हैं। उलटे उन्होंने कहा-‘एसो धम्मो सनंतनो’। अर्थात यही सनातन धर्म है, जिसे वे पुनव्र्याख्यायित मात्र कर रहे हैं। बुद्ध के संबोधन अपनी वैदिक जड़ों से मजबूती से जुड़े दिखते हैं। ‘हे ब्राrाणों’, ‘हे भिक्षुओं’, ‘हे आर्य’, आदि कहकर ही बुद्ध अपनी बातें कहते रहे। आर्य अर्थात भद्र, सभ्य, सज्जन। धर्म के गिरते स्तर को संभालना, उसकी हानि रोकना यही बुद्ध ने किया जो स्थापित हिंदू चेतना है। जिस तरह पहले श्रीकृष्ण या बाद में कबीर या स्वामी दयानंद ने अपने उपदेशों से कोई नया धर्म नहीं चलाया उसी श्रेणी में गौतम बुद्ध का जीवन और कार्य है।
बुद्ध ने शिष्यों को सीख देते हुए साधना द्वारा उसी बुद्धत्व की स्वयं ज्ञान प्राप्ति होने या करने की प्रेरणा दी जो भाव उपनिषदों में कूट-कूट कर भरा हुआ है। जो लोग भारत में हिंदू धर्म-परंपरा की हर अच्छी चीज को बुद्ध धर्म से ‘उधार’ लिया या ‘नकल’ बताते हैं, उन्होंने स्वयं बौद्ध ग्रंथों का शायद ही अध्ययन किया है। ऐसे लोगों को अपनी भ्रांति का सुधार करना चाहिए।
भारतवर्ष में नवबुद्धिज़्म का जनक अम्बेडकर नही ,Sir Alexander Cunningham था । आप अशोक के शिलालेख पढ़ लें, “बौद्ध” शब्द ही नहीं मिलेगा, सर्वत्र “ब्राह्मणों और श्रमणों” के लिए विशेष सम्मान और छूटों का उल्लेख है | “श्रमण” का अर्थ जानबूझकर कनिघम ने “बौद्ध” लगाया , जबकि ब्राह्मण का शास्त्रीय अर्थ होता है 【ब्रह्म्म जांनातीत इति ब्राह्मण】 “ब्रह्म-प्राप्त ज्ञानी व्यक्ति” और श्रमण का अर्थ है श्रम अर्थात तपस्या में रत व्यक्ति जो तत्कालीन हिन्दू धर्म के 65 सम्प्रदायों में से किसी भी सम्प्रदाय का हो सकता था | उन 65 में से एक सम्प्रदाय बौद्धों का भी था | बौद्धमत एक पृथक religion था ही नहीं ।
असली बुद्धिष्ट तिब्बत नेपाल आदि जगह “ॐ मनी पद्म हुम् ” का जाप , ईश्वर ध्यान , योग , प्राणायाम सहित ॐ का जाप भी करते है
उक्त व्याख्या के बाद क्या अब भी आप नहीं कहेंगे कि
*वेद भी मेरा – बुद्ध भी मेरा*
एक हो जाओ सभी सनातनियों हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों – बटोगे तो कटोगे जैसे पाकिस्तान में कट लिए, कश्मीर में कट लिए, अफगानिस्तान में कट लिए, बंग्लादेश में कट लिये और अब बंगाल में भी कट रहे हो।
अपने आपको दलित कहकर गरूर करते हो तो बाबासाहेब अंबेडकर के साथ जोगिंदर मंडल को भी याद कर लो – फिर लगाके दिखाओ नारा जय भीम जय मीम का –
हम सबके लिए “एक ही नारा एक ही नाम” – “जय भारत जय जय श्रीराम“