गृहस्थ में वैराग्य और सन्यस्त की यात्रा
*वैराग्य की अग्नि और संन्यास की शिखा : आत्मा की शाश्वत यात्रा*
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जब मनुष्य जीवन की चकाचौंध से थककर भीतर की ओर मुड़ता है, तब उसकी दृष्टि स्थूल से सूक्ष्म, और सूक्ष्म से परात्पर की ओर चल पड़ती है। यह जो भीतर लौटने की लय है—वही वैराग्य है। और जब यह वैराग्य स्थिर होकर एक महान व्रत बन जाए, तब वह रूप लेता है संन्यास का।
वैदिक जीवन की चार धाराएँ
‘आश्रम व्यवस्था’ केवल एक सामाजिक विधान नहीं है, वह एक अंतर्यात्रा की योजना है—ब्रह्मचर्य में तप, गृहस्थ में सेवा, वानप्रस्थ में विरक्ति और संन्यास में लय। यह क्रम केवल समयानुसार नहीं चलता, यह चेतना की परिपक्वता पर आधारित है।
गृहस्थ, जब भीतर से अपरिग्रही बन जाए, और वानप्रस्थ, जब आत्मा में रमण करने लगे, तब संन्यास की अग्नि स्वतः प्रज्वलित होती है।
शैव परंपरा : जहाँ विरक्ति शिवस्वरूप बन जाती है
शिव कोई मूर्ति नहीं, वह चेतना है—जो निर्विकल्प विरक्ति की पराकाष्ठा है। वे संसार के केंद्र में खड़े होकर भी संसार से विरक्त हैं। सर्प, भस्म, शव, त्रिशूल—इन प्रतीकों में जो सौंदर्य है, वह केवल संन्यासी ही अनुभव कर सकता है।
नाथ, दसनामी, अघोर, कापालिक, पाशुपत, वीरशैव—इन सब धाराओं में वैराग्य एक तपशक्ति बनकर व्यक्त हुआ है।
दसनामी संन्यासी, जो ‘गिरि’, ‘पुरी’, ‘सरस्वती’, ‘भारती’ जैसे नामों से विभक्त हैं, वे संन्यास की अद्वितीय परंपरा को युगों से ढोते आ रहे हैं। उनके शस्त्रधारी स्वरूप केवल रक्षा के लिए नहीं, अपितु ‘ज्ञान की तीव्रता’ और ‘त्याग की निर्भयता’ के प्रतीक हैं।
वैष्णव परंपरा : प्रेम के आँसूओं में डूबा वैराग्य
संन्यास केवल निर्गुण में विलीन होने की वृत्ति नहीं है, वह सगुण में समर्पण की भी चरम अवस्था है। वैष्णव संत—रामानंदी, वल्लभी, गौड़ीय, निम्बार्कीय—इनकी भक्ति में जो विरक्ति है, वह प्रेम का परम परित्याग है।
रामानंदाचार्य की परंपरा ने दिखाया कि जाति, वर्ण, लिंग—कुछ भी भक्ति और वैराग्य के मार्ग में बाधा नहीं। कबीर, पीपा, धन्ना, सखुबाई, रैदास—इन सबने वह अग्नि ओढ़ी, जो संसार को जलाकर भी आत्मा को अर्पण में पवित्र करती है।
गृहस्थ भी वैरागी बन सकता है?
शास्त्रों का उत्तर है—हाँ।
ऋषि वशिष्ठ और अरुंधती, अत्रि और अनसूया, गौतम और अहल्या, मृकंडु और मनस्विनी, कर्दम और देवहूति—ये सभी गृहस्थ होकर भी ब्रह्मनिष्ठ और विरक्त थे। उनका वैराग्य वस्त्रों में नहीं था, वह उनके अंतर की मौन अग्नि थी।
“न चूडायां न वस्त्राणि न यज्ञोपवीतकम्।
लक्षणं धर्मकामानां शमः सत्यं दमः क्षमा॥”
(मनुस्मृति 6.44)
न चोटी, न वस्त्र, न यज्ञोपवीत—इनमें धर्म नहीं है। शांति, सत्य, संयम और क्षमा ही उसके लक्षण हैं।
वैराग्य : केवल त्याग नहीं, आत्मा की पुकार है
सच्चा वैरागी वह नहीं जो जंगल चला गया, वह है जो मोह से निकल गया।
संन्यास कोई संस्थागत वस्त्र नहीं, वह एक आत्मिक समाधि की वृत्ति है। शास्त्र कहते हैं:
“यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥”
(गीता 3.7)
जो इन्द्रियों को संयमित कर, निष्काम होकर कर्म करता है—वही वास्तव में योगी है।
अंत में……..
वैराग्य का पथ सरल नहीं—वह अग्नि है। पर जो उस अग्नि को अपने भीतर जला लेता है, उसके लिए वही अग्नि प्रकाश बन जाती है।
वह वैरागी वस्त्र नहीं पहनता, वह आत्मा का उजास ओढ़ता है।
वह संन्यासी किसी अखाड़े से नहीं बनता, वह ब्रह्म से एकत्व के मौन संकल्प से बनता है।
और वही, युगों के लिए आदर्श बनता है—एक आत्मा जो साक्षात् तपस्वी हो गई।