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अच्छी और बुरी संगत

अच्छी संगति का महत्व बताते दोहे

अच्छी संगति का महत्व

संग अथवा संगति का अर्थ है, साथ। हम जिन व्यक्तियों के सानिध्य में रहते हैं, वह हमारी संगति कहलाती है। मित्रों, संगति का व्यक्ति के चरित्र पर बहुत बड़ा एवं महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

वह संगति ही है, जो आपके अवगुणों को गुणों में परिवर्तित कर सकती है। संगति द्वारा व्यक्ति में सद्गुणों तो आते हैं, किंतु वहीं यदि संगति अच्छी ना हो, तो व्यक्ति के अच्छे गुण भी नष्ट हो सकते हैं ।

इसीलिए हम कैसे व्यक्तियों के सानिध्य में हैं, इस बात पर विचार करना अति आवश्यक है। बुरी संगति ना केवल हमारे चरित्र, स्वभाव एवं आचरण को खराब करती है, बल्कि समाज में हमारा मान – सम्मान एवं प्रतिष्ठा भी धूमिल होते हैं।

यही कारण है कि हमारे बड़े, गुरु जन एवं हमारे हितेषी एवं हमारे हितेषी सदैव हमें अच्छे लोगों के साथ रहने की सलाह देते हैं। ऐसा ही एक वीडियो कोचिंग क्लास के स्टूडेंट्स को सिखाने की कोशिश क्लास टीचर ने बनाया है। देखिए और उनका आभार!

जब हमारी संगति अच्छी होती है तब हम सामने वाले से उनके अच्छे गुण ग्रहण करते हैं। महापुरुषों ने मानव को अच्छी एवं बुरी संगति के प्रभाव से निरंतर दो चार करवाया है।

यहां अच्छी संगति की ओर प्रेरित करते हुए 5 दोहे आपको भी जरूर पढ़ना चाहिए।

तो आइए जानते हैं संगति के गुण अवगुण को बताते दोहों को :

1 ) जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष ब्याप्त नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।

भावार्थ: वह व्यक्ति जो स्वभाव से उत्तम एवं जिसका अपने मन विचार एवं वचन पर पूरा नियंत्रण होता है, वह अच्छी – बुरी संगति के प्रभाव से मुक्त रहता है।

उत्तम प्रकृति के लोगों से तात्पर्य है अच्छे स्वभाव वाले मनुष्य। ऐसे लोगों की तुलना चंदन के वृक्ष से की गई है, जैसे चंदन के सुगंध मई पेड़ से कई विषैले सर्प लिपटे हुए रहते हैं, किंतु उन सर्पों के लिपट के रहने से चंदन के वृक्ष में विष व्यापत नहीं होता, अर्थात फैलता नहीं है। ठीक उसी प्रकार, बुरी संगति उत्तम पुरुष पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाती। परन्तु इसके लिए आवश्यक शर्त ये है कि हमें अपने विचारों, आचरण एवं स्वभाव में इतनी शुद्धता एवं दृढ़ता लानी चाहिए कि किसी की अनुचित विचार अथवा गलत आचरण का हम पर किसी प्रकार से कोई दुष्प्रभाव ना पड़े।

2 ) कबीर तन पंछी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ी जाई।
जो जैसी संगति कर, सो तैसा ही फल पाई।

भावार्थ: यहां यह संदेश प्रतिपादित किया है कि हम मनुष्य जिस संगति में रहेंगे वैसा ही फल हम पाएंगे। यह तन अब पंछी बन गया है। जिस प्रकार पंछी स्वच्छंदता से कहीं भी उड़ चलता है उसी प्रकार मनुष्य का जहां भी मन करता है वह वही उड़ जाता है अर्थात चला जाता है।

मनुष्य जहां जाता है, वैसा ही परिणाम उसे मिलता है । अर्थात जो जैसे सत्संग में रहता है, वैसे ही फल का भागी बनता है।

इसका सन्देश यह है कि बिना सोचे समझे केवल मन हो जाने पर कैसे भी संग कर लेते हैं, किंतु वास्तविकता यह है कि यदि हम सोच समझकर संगति को नहीं सुनेंगे तो हमें बुरे परिणाम मिलेंगे क्योंकि कुसंगति का फल हमेशा बुरा ही होता है। जो भली प्रकार सोच समझकर, मन पर नियंत्रण रखकर, मन के वेग में ना आकर संगति चुनता है, वह उत्तम परिणाम पाता है।

3 ) रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुरा होय।
बीच ईखारी रस भरा, रस काहे न होय।।

भावार्थ: व्यक्ति अपना मूल गुण कभी नहीं छोड़ता। इसलिए कवि स्वयं को उद्बोधन देते हुए कहता हैं कि हे रहीम ! तुम तो कहा करते थे कि संगति से ही सद्गुण प्राप्त होते हैं। किंतु ऐसा सदैव ही नहीं होता। मनुष्य के कुछ गुण कभी नहीं बदलते।

जिसका गुण ही दुष्टता करना है, जिसकी प्रवृत्ति ही दुष्ट है, वह सज्जनों की संगति में भी सुधर नहीं सकता। जैसे एक कड़वा पौधा, जो रसीले मीठे ईंख के खेत में अनगिनत आंखों के बीच रहता है वह मीठा एवं रसीला नहीं बन पाता। इसी प्रकार दुष्ट, दुराचारी व्यक्ति अच्छी संगति में रहने के बावजूद भी अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता है। अच्छी संगति भी उसकी प्रवृत्ति को नहीं बदल सकती।

4 ) कदली, सीप, भुजंग मुख , स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दिन।

भावार्थ: संगति का व्यक्ति के ऊपर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। मनुष्य का आचरण, स्वभाव, उसकी संगति से ही निश्चित होते हैं।

जैसे स्वाति नक्षत्र में हुई वर्षा की सभी बूंदे एक समान होती हैं, किंतु धरातल पर भिन्न-भिन्न स्थानों पर गिरने से एक समान वर्षा की बूंदों में भिन्न-भिन्न गुणों का प्रतिपादन हो जाता है।

अर्थात कदली में पड़ने पर वर्षा की बूंद कपूर में परिवर्तित हो जाती हैं, सीप में गिर जाए, तो बहुमूल्य मोती का रूप धारण कर लेती है, और वहीं यदि भुजंग अर्थात विषैले सर्प के मुंह में गिर जाए तो शीतल बूंद से विष में बदल जाती है।

अतः जैसे व्यक्ति की सानिध्य को धारण करेंगे, वैसे ही बनेंगे। हमें अपनी संगति सदैव अच्छी रखनी चाहिए ताकि हम में उत्कृष्ट गुणों का आगमन हो।

5 ) ओछो को सतसंग रहिमन, तजहुँ अंगार ज्यों।
ता तौ जरै अंग सीरे, पै कारौ लागै।

भावार्थ: इस दोहे में कवि ने भ्रष्ट, दुर्जन एवं दुष्ट व्यक्तियों की संगति को त्याग देने की ओर इंगित किया है और कहा है कि ओछे लोगों, अर्थात बुरे व्यक्तियों की संगत एवं सानिध्य को ठीक उसी प्रकार त्याग देना चाहिए, जिस प्रकार धधकते अंगार का परित्याग किया जाता है।

यहां कुसंगति को अंगार के समान बताया गया है। और कहा गया है कि जब अंगार जलती है, तो उसकी गर्मी एवं ताप से व्यक्ति का अंग-अंग जलता है और जब वह ठंडी होकर कोयला बन जाती है, तब उसकी कालिख शरीर पर लग जाती है।

दोहे का भाव यह है कि जब व्यक्ति कुसंगति में रहता है तब उसका मान – सम्मान, प्रतिष्ठा एवं उस में विद्यमान सभी गुण जलते रहते हैं, अर्थात नष्ट होते रहते हैं किंतु जब वह बुरी संगति को छोड़ भी देता है, तब भी उसके माथे पर कलंक लगा ही रह जाता है, और उसकी प्रतिष्ठा धूमिल ही रहती है।

प्रस्तुत दोहे कविवर रहीम ने हमें बहुत बड़ी शिक्षा दी है कि हमें कभी भी कुसंगति में नहीं रहना चाहिए क्योंकि यदि हम संभल जाने पर कुसंगति छोड़ भी दें, तब भी उसकी कालिख अर्थात दुर्गुण हमारा पीछा नहीं छोड़ते।

निष्कर्ष :

तो मित्रों आप ने इन सभी दोहों के माध्यम से जाना कि व्यक्ति के जीवन में सुसंगती अर्थात अच्छी संगति की कितनी बड़ी भूमिका है। कविवर रहीम एवं कबीर दास जी ने अलग-अलग उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हमें बुरे संगति के दुष्प्रभावों से भी अवगत कराया है, एवं अच्छी संगति के अच्छे प्रभावों के बारे में भी बताया है। इन सभी सीखों को अपने जीवन में उतार कर हम निरंतर अपना मार्गदर्शन कर सकते हैं एवं अच्छी संगति में रहकर अपने जीवन को और भी अर्थ पूर्ण बना सकते हैं।

आपको इनमें से कौनसा दोहा अधिक पसंद और प्रभावशाली लगा है, अपनी राय कमेंट में लिखकर या इमोजी द्वारा प्रकट कर हमें अवश्य फीडबैक दें। www.hopedhara.com से जुड़े रहें और जोड़ते रहिये।

पुनश्चः :

!! कुसंग का त्याग करें !!
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कुसंग के प्रभाव से हमारा भजन उसी तरह नष्ट हो जाता है जिस तरह पाले के प्रभाव से हरी-भरी बेल सूखकर धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है। हम कितना भी भजन कर लें, सत्संग कर लें लेकिन निरंतर कुसंग का सेवन करते रहें तो सुना हुआ, पढ़ा हुआ, और जाना हुआ कोई भी सुविचार हमारे आचरण में नहीं उतर पायेगा।
जीवन के उत्थान के लिए यदि सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कोई बात है तो वो है हमारा संग। धनवान के संग से धनोपार्जन के विभिन्न साधनों का ज्ञान हो जाता है, जो धनवान बना सकता है। ऐसे ही ज्ञानवान बनने के लिए ज्ञानी जनों का और धर्मवान बनने के लिए धर्मनिष्ठ महापुरुषों का संग आवश्यक हो जाता है। संग के प्रभाव से तो तोता भी राम – राम रटने लग जाता है..।

  1. !! जय जय राम !!

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