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महाकुम्भ की महागाथा भाग 1

महाकुम्भ की महागाथा 

दुनिया के लिए अबूझ, पर हमारे पुराणों में दर्ज है सब कुछः

जानिए क्या है महाकुंभ का खगोलीय महत्व, कितनी प्राचीन यह सनातनी परंपरा; क्यों है यह भारत के ‘आदर्श समाज’ का आधार

प्रयागराज महाकुंभ 2025 की शुरुआत माघ मेले (13 जनवरी 2024) के साथ हो जाएगी। प्रयागराज महाकुंभ का आयोजन भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का सबसे बड़ा उत्सव होगा, जो माघ महीने में प्रारंभ होकर लगभग दो महीनों तक चलेगा। इस दौरान करोड़ों श्रद्धालु यहाँ डुबकी लगाएँगे। इस समय महाकुंभ की तैयारियाँ जोरों पर हैं, जिसमें नए घाटों का निर्माण, यातायात और सुरक्षा प्रबंधन, पेयजल और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार, साथ ही स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

कुंभ का यह दिव्य आयोजन न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों, विविधता, और सहिष्णुता की अद्वितीय मिसाल भी पेश करता है। हम इस लेख में जानेंगे, महाकुंभ से जुड़ी खास बातें…

महाकुंभ का पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ`

महाकुंभ मेला भारतीय संस्कृति का ऐसा पवित्र उत्सव है, जिसकी गूंज प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक युग तक सुनाई देती है। महाकुंभ मेला इतिहास, धर्म, दर्शन और समाज के अद्वितीय समागम को दर्शाता है। यह मेला न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि भारतीय दर्शन, परंपरा और खगोलीय विज्ञान का अद्भुत संगम भी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश की बूंदें हरिद्वार, प्रयागराज (इलाहाबाद), उज्जैन और नासिक के पवित्र स्थलों पर गिरीं। यही कारण है कि इन चार स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। इस मेले का इतिहास इतना पुराना है कि इसकी उत्पत्ति का समय स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है।

महाकुंभ का उल्लेख वेदों, पुराणों और महाकाव्यों में मिलता है। श्रीमद्भागवत पुराण, विष्णु पुराण और महाभारत में समुद्र मंथन की कथा को विस्तार से बताया गया है। इस कथा के अनुसार, देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र का मंथन किया। मंथन से निकले अमृत कलश को लेकर देवताओं और असुरों में संघर्ष हुआ, जिसमें अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिरीं।

विष्णु पुराण में यह भी उल्लेख है कि जब गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करता है और सूर्य मेष राशि में होता है, तो हरिद्वार में कुंभ का आयोजन होता है। इसी प्रकार, जब सूर्य और गुरु सिंह राशि में होते हैं, तो नासिक में कुंभ लगता है। उज्जैन में कुंभ तब होता है जब गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करता है। प्रयागराज में माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरु मेष राशि में होता है। इस खगोलीय गणना का सटीक पालन आज भी किया जाता है।

इतिहासकार मानते हैं कि कुंभ मेला सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुराना है। तो कुछ इतिहासकारों के अनुसार कुंभ मेले का आयोजन गुप्त काल (तीसरी से पाँचवीं सदी) में सुव्यवस्थित रूप में शुरू हुआ। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी 629-645 ईस्वी में सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रयागराज के कुंभ मेले का वर्णन किया है। उन्होंने इसे एक विशाल और भव्य आयोजन बताया, जिसमें असंख्य साधु, विद्वान और श्रद्धालु सम्मिलित होते थे। आधुनिक प्रशासनिक ढांचे के तहत कुंभ का स्वरूप गुप्त काल से शुरु हुआ और शंकराचार्य ने इसे धर्म और समाज को जोड़ने का माध्यम बनाया।

धर्माचार्य मानते हैं कि कुंभ मेला अनादि है। यह किसी एक घटना से प्रारंभ नहीं हुआ बल्कि मानव सभ्यता के साथ इसकी परंपरा विकसित हुई। यह आयोजन मानवता की धरोहर है, जिसमें धर्म, संस्कृति और समाज का अद्भुत समागम होता है।

कुंभ मेले का खगोलीय महत्व`

कुंभ मेला खगोलीय घटनाओं पर आधारित है। नवग्रहों में से सूर्य, चंद्रमा, गुरु और शनि की स्थिति इस आयोजन के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। अमृत की रक्षा में इन ग्रहों की भूमिका को पुराणों में विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। कुंभ मेले का आयोजन हर तीन वर्षों के अंतराल पर होता है, जो चार पवित्र स्थलों—हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में बारी-बारी से आयोजित होता है। 12 वर्षों के चक्र के बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर लौटता है।

प्रयागराज का कुंभ विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम होता है। कुंभ मेला हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है, जबकि 6 साल में अर्धकुंभ और हर 144 साल में महाकुंभ का आयोजन होता है। हर 144 साल आयोजित होने वाले महाकुंभ को देवताओं और मनुष्यों के संयुक्त पर्व के रूप में देखा जाता है। शास्त्रों के अनुसार, पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं के एक दिन के बराबर होता है। इसी गणना के आधार पर 144 वर्षों के अंतराल को महाकुंभ के रूप में मनाया जाता है।

यह गाथा जारी है अगले भाग में, पढ़ते रहिये और जुड़े रहिये होपधारा से

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