ऋषिश्री सन्देशवरद वाणीवरदायोगमसत्संग स्वाध्यायस्वस्थ आयुर्वेद एवं नेचुरोकेयर

आज का स्वाध्याय – प्राण क्या है?

`प्राण क्या है? उसका स्वरूप क्या है??`

हमने बहुत बार अपने जीवन में व्यवहारिक रूप से प्राण शब्द का उपयोग किया है, परंतु हमें प्राण की वास्तविकता के बारे में शायद ही पता हो, या तो हम भ्रांति से यह मानते हैं कि प्राण का अर्थ जीव या जीवात्मा होता है, परंतु यह सत्य नहीं है, प्राण, वायु का एक रूप है, जब हवा आकाश में चलती है तो उसे वायु कहते हैं, जब यही वायु हमारे शरीर में 10 भागों में काम करती है तो इसे “प्राण” कहते हैं, वायु का पर्यायवाची नाम ही प्राण है।

मूल प्रकृति के स्पर्श गुण-वाले वायु में रज गुण प्रधान होने से वह चंचल, गतिशील और अदृश्य है। पंच महाभूतों में प्रमुख तत्व वायु है । वात् पित्त कफ में वायु बलिष्ठ है, शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियाँ, नेत्र – श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अन्य सब अवयव -अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर समस्त कार्यों का संपादन करते हैं। वह अति सूक्ष्म होने से सूक्ष्म छिद्रों में प्रविष्टित हो जाता है। प्राण को रुद्र और ब्रह्म भी कहते हैं ।

प्राण से ही भोजन का पाचन, रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य, रज, ओज, आदि धातुओं का निर्माण, व्यर्थ पदार्थों का शरीर से बाहर निकलना, उठना, बैठना, चलना, बोलना, चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल व सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं। प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव (अंग-प्रत्यंग-इन्द्रियाँ आदि) शिथिल व रुग्ण हो जाते हैं। प्राण के बलवान् होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल, पराक्रम आते हैं और पुरुषार्थ, साहस, उत्साह म, धैर्य, आशा, प्रसन्नता, तप, क्षमा आदि की प्रवृति होती है।

शरीर के बलवान् , पुष्ट , सुगठित , सुन्दर , लावण्ययुक्त , निरोग व दीर्घायु होने पर ही लौकिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति हो सकती है। इसलिए हमें प्राणों की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार , प्रगाढ़ निद्रा, ब्रह्मचर्य, प्राणायाम आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान् बनाना चाहिए। परमपिता परमात्मा द्वारा निर्मित १६ कलाओं में एक कला प्राण भी है। ईश्वर इस प्राण को जीवात्मा के उपयोग के लिए प्रदान करता है। ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर में प्रवेश करता है, प्राण भी उसके साथ शरीर में प्रवेश कर जाता है तथा ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर से निकलता है, प्राण भी उसके साथ निकल जाता है। सृष्टि के आदि में परमात्मा ने सभी जीवों को सूक्ष्म शरीर और प्राण दिया जिससे जीवात्मा प्रकृति से संयुक्त होकर शरीर धारण करता है। सजीव प्राणी नाक से श्वास लेता है, तब वायु कण्ठ में जाकर विशिष्ठ रचना से वायु के दस विभाग हो जाते हैं। शरीर में विशिष्ठ स्थान और कार्य से प्राण के विविध नाम हो जाते हैं ।

`मुख्य प्राण -`

१. `प्राण ,`

२. `अपान,`

३. `समान,`

४. `उदान`

५. `व्यान`

`और उपप्राण भी पाँच बताये गए हैं -`

१. `नाग`

२. `कूर्म`

३. `कृकल`

४. `देवदत्त`

५. `धनज्जय`

`मुख्य प्राण और उपप्राण का स्वरूप -`

मुख्य प्राण :-

१. `प्राण :-` इसका स्थान नासिका से ह्रदय तक है। नेत्र, श्रोत्र, मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते हैं। यह सभी प्राणों का राजा है। जैसे राजा अपने अधिकारियों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है, वैसे ही यह भी अन्य अपान आदि प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है।

२. `अपान :-` इसका स्थान नाभि से पाँव तक है , यह गुदा इन्द्रिय द्वारा मल व वायु को उपस्थेन्द्रिय द्वारा मूत्र व वीर्य को योनी द्वारा रज व गर्भ का कार्य करता है।

३. `समान :-` इसका स्थान हृदय से नाभि तक बताया गया है। यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है।

४. `उदान :-` यह कण्ठ से सिर ( मस्तिष्क ) तक के अवयवों में रहता है , शब्दों का उच्चारण, वमन ( उल्टी ) को निकालना आदि कार्यों के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को अच्छे लोक ( उत्तम योनि ) में, बुरे कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक (अर्थात सूअर , कुत्ते आदि की योनि ) में तथा जिस आत्मा ने पाप – पुण्य बराबर किए हो, उसे मनुष्य लोक ( मानव योनि ) में ले जाता है ।

५. `व्यान :-` यह सम्पूर्ण शरीर में रहता है । हृदय से मुख्य १०१ नाड़ियाँ निकलती है , प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ हैं तथा प्रत्येक शाखा की भी ७२००० उपशाखाएँ हैं । इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा- उपशाखाओं में यह रहता है। समस्त शरीर में रक्त-संचार , प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है ।

`उपप्राण :-`

१. `नाग :-` यह कण्ठ से मुख तक रहता है । उद्गार (डकार ), हिचकी आदि कर्म इसी के द्वारा होते हैं ।

२. `कूर्म :-`इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है , यह नेत्र गोलकों में रहता हुआ उन्हें दाएँ -बाएँ, ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की क्रिया करता है । आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते हैं।

३. `कूकल :-`यह मुख से हृदय तक के स्थान में रहता है तथा जृम्भा (जंभाई =उबासी ), भूख, प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है ।

४. `देवदत्त :-` यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है । इसका कार्य छिंक , आलस्य , तन्द्रा , निद्रा आदि को लाने का है।

५. `धनज्जय :-` यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है, इसका कार्य शरीर के अवयवों को खींचे रखना, माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है। शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है , फलतः इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है।

जब शरीर विश्राम करता है , ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है , मन शांत हो जाता है तब प्राण और जीवात्मा जागता है। प्राण के संयोग से “जीवन” और प्राण के वियोग से “मृत्यु” होती है।

जीव का अन्तिम साथी प्राण है । आप अपना मात्र प्राण है जो परमात्मा ने हमें दिया है। शरीर माता-पिता का दिया हुआ है, परन्तु उसमें भी प्राण आपका अपना है। उसके अतिरिक्त इस संसार मे कुछ भी आपका नहीं है जिसे आप मैं मेरा मेरा कहते हो। वास्तव में तो प्राण ही मात्र आपके हैं। इसलिए अपने प्राणों का ध्यान करो, उनका ध्यान रखो और उन्हें स्व्स्थ रखो।

जब भी प्रणाभ्यास (प्राणायाम) करें तो हर श्वास के अनुलोम विलोम में यह मन में गुनगुनाते रहें “मेरे प्राण मेरे प्राण, मेरे प्यारे स्वस्थ प्राण” । तभी आपका प्रणाभ्यास सार्थक होगा और प्राण स्व्स्थ रहेंगे। अधिक जानकारी और अभ्यास विधि के लिए वरदायोगम से जुड़ें । सम्पर्क सूत्र : 7303730311

जय जय राम

ऋषिश्री वरदानंद

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